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31-10-2023
कोई भी कला का निर्माण सामान्य विचारों की समग्राता से होता है जिसके पीछे रचनात्मकता स्थित होती है। जीवन के हर पहलु से जुड़ा हुआ, मनुष्य के मन की ऊर्जा और मनोसंवेदनाओं का आदान-प्रदान ही विचारों की रचनात्मकता है।
विचारों की रचनात्मकता मनुष्य की स्मृतियों, अनुभवों, ज्ञान और संवेदनाओं की अद्वितीय प्रक्रिया है, जो उसे नई और सृजनात्मक शिक्षाओं की ओर ले जाती है।
विचारों की रचनात्मकता और उसका सकारात्मक प्रभाव हमारे जीवन की सार्थकता पर कहीं न कहीं निर्भर करता है। हम एक जटिल समस्या का हल ढूंढ़ते हैं, एक खोज करते हैं, एक कला की रचना करते हैं, या सिर्फ अपने आस-पास की दुनिया को समझने की कोशिश करते हैं - इन सभी का एक समान तत्व है, वह है विचारों की रचनात्मकता।
रचनात्मक विचारों की प्रक्रिया हमें नये और अनोखे आयामों में ले जाती है, जिससे हमारी समझ और गति शीलता में उन्नति होती है। यह हमें हमारे डर और कठिनाइयों को पार करने की प्रेरणा देता है, और हमें अपनी अद्वितीयता को अभिव्यक्त करने का एक मंच प्रदान करता है।
सारांश में, विचारों की रचनात्मकता केवल एक नया विचार या समाधान प्राप्त करने की क्षमता नहीं है, बल्कि यह हमारी समझ और अनुभूतियों के आयामों को विस्तारित करने की एक ऊर्जा है, जो हमे दुनिया को एक बहुत ही अनूठे और ताजगी के साथ देखने की क्षमता प्रदान करती है।
: प्रशान्त मिश्रा ( लेखक / विचारक )
दार्शनिक दृष्टि से देखें या वैज्ञानिक दृष्टि से, मानव जीवन को एक अमूल्य संपदा के रूप में ही स्वीकार किया जाता है। शारीरिक, मानसिक एवं आत्मिक क्षेत्र में ऐसी-ऐसी अद्भुत क्षमताएँ भरी हुई हैं कि सामान्य बुद्धि से उनकी कल्पना भी नहीं की जा सकती। यदि उन्हें विकसित करने की विद्या अपनायी जा सके तथा सदुपयोग की दृष्टि पाई जा सके तो जीवन में लौकिक एवं अलोकिक संपदाओ-विभूतियों के ढेर लग सकते है।
मनुष्य को मानवोचित ही नहीं, देवोचित जीवन जी सकने योग्य साधन भी प्राप्त है फिर भी उसे पशुतुल्य, दीन-हीन जीवन इसलिए जीना पड़ता है कि वह जीवन को परिपूर्ण सुडौल बनाने के मूल तथ्यों पर न तो ध्यान ही देता है और न उनका अभ्यास करता है। जीवन को सही ढंग से जीने की कला जानना तथा कलात्मक ढंग से जीवन जीने को जीवन जीने की कला कहते हैं। इस प्रकार कलात्मक जीवन जीते हुए मनुष्य जीवन के श्रेष्ठतम लक्ष्य तक पहुँचने के लिए अनेक सद्गुणों का विकास करना होता है, अपने अंदर अनेक दोषों का शोधन तथा अनेक सद्गुण, सत्प्रवृत्तियों एवं क्षमताओं का विकास करना होता है उन्हें विकसित और सुनियोजित करने की विद्या ही "जीवन साधना" कही जाती है जीवन-साधना द्वारा मनुष्य का व्यक्तित्व महामानवों देवपुरुषों जैसा सक्षम एवं आकर्षक बनाया जाना संभव है।
जीवन की सुव्यवस्था जहाँ उसे आकर्षक एवं गौरवपूर्ण बनाती है, वहीं अस्त-व्यस्तता उसे कुरूप और हानिकारक भी बना देती है। मशीन के पुर्जे ठीक प्रकार कसे हुए हैं, तो वह सुंदर भी दीखेगी तथा उपयोगी भी होगी। किंतु यदि उन्हें खोलकर छितरा जाय तो तो समाप्त हो ही जायेगी, चारों ओर कूड़ा-कबाड़ा सा फैला दिखाई देगा। मनुष्य का व्यक्तित्व भी इसी तरह उपयोगी अथवा अनुपयोगी बनता रहता है। यह अंतर देव और प्रेत जितना होता है। देव सुंदर, स्वच्छ एवं व्यवस्थित होते हैं, प्रेत भयानक एवं अस्त-व्यस्त होते हैं जीवन-साधना से मनुष्य- देवात्मा और उसकी उपेक्षा से प्रेतात्मा जैसी स्थिति में पहुँच जाता है। देवात्मा सुख-संतोष का सृजन करते हैं तथा प्रेतात्मा नित्य नयी समस्याएँ पैदा किया करते हैं।
: लोकेश कुमार ( लेखक / विचारक )
09 - 11 -2023
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